ने फ़क़त तुझ हुस्न की है हिन्द की ख़ूबाँ में धूम
है तिरी ज़ुल्फ़-ए-चलीपा की फ़रंगिस्ताँ में धूम
क्या करें पा-बस्ता-ए-कू-ए-बुताँ हैं वर्ना हम
करते जूँ फ़रहाद ओ मजनूँ दश्त-ओ-कोहिस्ताँ में धूम
देख तेरे मुँह को कुछ आईना ही हैराँ नहीं
तुझ रुख़-ए-रौशन की है महर-ओ-मह-ए-ताबाँ में धूम
ऐ बहार-ए-गुलशन-ए-नाज़-ओ-नज़ाकत हर तरफ़
तेरे आने से हुई है और भी बुस्ताँ में धूम
शेर कहना गरचे छोड़ा तू ने ऐ 'बेदार' आज
कह ग़ज़ल ऐसी कि हो बज़्म-ए-सुख़न-संजाँ में धूम
ग़ज़ल
ने फ़क़त तुझ हुस्न की है हिन्द की ख़ूबाँ में धूम
मीर मोहम्मदी बेदार