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नज़दीक सी शय साया-ए-हाइल से बहुत दूर | शाही शायरी
nazdik si shai saya-e-hail se bahut dur

ग़ज़ल

नज़दीक सी शय साया-ए-हाइल से बहुत दूर

मीम हसन लतीफ़ी

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नज़दीक सी शय साया-ए-हाइल से बहुत दूर
मंज़िल है शनासाई-ए-मंज़िल से बहुत दूर

दुश्वार सही दूर नहीं नुक्ता-रसी से
लेकिन है ग़लत-रस्मी-ए-राहिल से बहुत दूर

ये ऐन ख़ुदी इश्क़ के आसार में है ग़म
पहलू से है कम दूर मुक़ाबिल से बहुत दूर

हर सहल-तलब से तो है बरगश्ता-बदीहा
हर साइल-ए-कामिल के भी हासिल से बहुत दूर

क़ुर्बानियाँ कुछ रख दे गिरो ऐसी उठे गूँज
गिर-पड़ के जो पहुँचे कोई मुश्किल से बहुत दूर

तारी असर-ए-सदमा कभी नश्शा-ए-तुंदी
ख़ुद-संजी-ए-हक़-सीरत-ए-ज़ाइल से बहुत दूर

मश्शातगी-ए-शाना बहुत सिलसिला-ए-जुम्बा
तह-दारी-ए-सद-ज़ुल्फ़-ए-अवाइल से बहुत दूर

इक सिलसिला-ए-मौजा-ए-ज़ंजीर-ए-शिकन सा
घुसते हुए ज़िंदाँ से सलासिल से बहुत दूर

ग़ल्तीदा-ओ-पेचीदा-ओ-आशुफ़्ता सी इक मौज
साहिल को लिए ज़द में है साहिल से बहुत दूर

सद-ज़ाविया मेहराब-ए-तग़य्युर कम-ओ-अफ़्ज़ूँ
इदराक के बाज़ू-ए-हमाइल से बहुत दूर

यूँ जैसे कि हर अस्र-ए-रवाँ के मुतवाज़ी
मौसम की हर इक शक़ के मुमासिल से बहुत दूर

पिन्हाँ अभी कम-पोश भी मुबहम अभी हर बार
पायाबी-ए-मिज़राब रग-ए-दिल से बहुत दूर

लाहूत की इक लहर सू-ए-कर्ब-ए-दिल-ए-ख़ाक
लाया कोई जज़्बा किसी महफ़िल से बहुत दूर

आशोब-ए-क़दह जस्ता सू-ए-गश्त पियादा
वामाँदगी-ए-तिश्ना-ओ-सर-जोशी-ए-बादा