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नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है | शाही शायरी
nazar uThaen to kya kya fasana banta hai

ग़ज़ल

नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है

रहमान फ़ारिस

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नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है
सौ पेश-ए-यार निगाहें झुकाना बनता है

वो लाख बे-ख़बर-ओ-बे-वफ़ा सही लेकिन
तलब किया है गर उस ने तो जाना बनता है

रगों तलक उतर आई है ज़ुल्मत-ए-शब-ए-ग़म
सो अब चराग़ नहीं दिल जलाना बनता है

पराई आग मिरा घर जला रही है सो अब
ख़मोश रहना नहीं ग़ुल मचाना बनता है

क़दम क़दम पे तवाज़ुन की बात मत कीजे
ये मय-कदा है यहाँ लड़खड़ाना बनता है

बिछड़ने वाले तुझे किस तरह बताऊँ मैं
कि याद आना नहीं तेरा आना बनता है

ये देख कर कि तिरे आशिक़ों में मैं भी हूँ
जमाल-ए-यार तिरा मुस्कुराना बनता है

जुनूँ भी सिर्फ़ दिखावा है वहशतें भी ग़लत
दिवाना है नहीं 'फ़ारिस' दिवाना बनता है