नज़र समेटें बटोर कर इंतिज़ार रख दें
जो उस पे था अब तलक हमें ए'तिबार रख दें
बस एक ख़्वाहिश मदार थी अपनी ज़िंदगी का
किसी के हाथों में अपना दार-ओ-मदार रख दें
तुझे जकड़ ले कभी सलीक़ा यही नहीं है
है जी में सब नोच कर निगाहों के तार रख दें
बड़ी ही नरमी से उस की आँखें मुसिर हुई थीं
हम उस के दामन में अपना सारा ग़ुबार रख दें
कभी मिरी ज़िद जो कर ले मुझ ही को ले के दम ले
फिर उस के आगे ज़माने भर को हज़ार रख दें
ग़ज़ल
नज़र समेटें बटोर कर इंतिज़ार रख दें
शमीम अब्बास