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नज़र में कोई मंज़िल है न जादा चाहता हूँ | शाही शायरी
nazar mein koi manzil hai na jada chahta hun

ग़ज़ल

नज़र में कोई मंज़िल है न जादा चाहता हूँ

वक़ार मानवी

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नज़र में कोई मंज़िल है न जादा चाहता हूँ
सफ़र चाहे कोई हो बे-इरादा चाहता हूँ

ख़ुशी का क्या ख़ुशी में चाहे कुछ तख़फ़ीफ़ कर दो
मता-ए-ग़म ज़ियादा से ज़ियादा चाहता हूँ

मिरा मफ़्हूम आसानी से खुल जाए जहाँ पर
मैं अपना लहजा-ए-इज़हार सादा चाहता हूँ

मिरी नज़रों को वुसअ'त दो-जहाँ की देने वाले
मैं दामान-ए-तख़य्युल भी कुशादा चाहता हूँ

क़यादत मुझ पे नाज़ाँ थी कभी मंज़िल-ब-मंज़िल
और अब ख़ुद ही क़यादत जादा जादा चाहता हूँ

बहुत तल्ख़ी भरे हालात में जीना पड़ा है
इसी तल्ख़ी की ख़ातिर तल्ख़ बादा चाहता हूँ

मैं ख़ुद पहुँचूँ कि मेरे क़दमों में चली आई
ब-हर-सूरत मैं तकमील-ए-इरादा चाहता हूँ

मुसलसल चाहिए की बात है और बरमला है
सवाल इस का नहीं कम या ज़ियादा चाहता हूँ

जहान-ए-तंग की तंगी से मेरा क्या इलाक़ा
वसी-उल-क़ल्ब हूँ दुनिया कुशादा चाहता हूँ

तिरे दामन-कशाँ रहने का मतलब क्या है मुझ से
यही तो है कि मैं तुझ को ज़ियादा चाहता हूँ

अलग तश्कील देना चाहता हूँ अपनी मंज़िल
'वक़ार' अपने लिए मख़्सूस जादा चाहता हूँ