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नज़र मत बुल-हवस पर कर अरे चंचल सँभाल अँखियाँ | शाही शायरी
nazar mat bul-hawas par kar are chanchal sambhaal ankhiyan

ग़ज़ल

नज़र मत बुल-हवस पर कर अरे चंचल सँभाल अँखियाँ

उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला

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नज़र मत बुल-हवस पर कर अरे चंचल सँभाल अँखियाँ
कि उस बद-फ़े'ल सूँ खीचेंगी आख़िर इंफ़िआल अँखियाँ

जुदाई से होवे मफ़रूर जाँ क़ालिब के सूबा सूँ
अपस दीदार सूँ करती हैं फिर उस कूँ बहाल अँखियाँ

निगाह-ए-गर्म गुल-रू सीं हुआ रौशन यू माली पर
कि अब सूरज नमन नर्गिस पे लादेंगी ज़वाल अँखियाँ

हुआ मा'लूम बद-काराँ तरफ़ नित सीन करने सूँ
कि रजवारे में बस्ती हैं सिरीजन की जुह्हाल अँखियाँ

जहाँ के रावताँ सूँ ग़म्ज़ा के नेज़ा कूँ चमका कर
नज़र-बाज़ी के मैदाँ बीच करती हैं क़िताल अँखियाँ

मुरव्वत का असर दस्ता नहीं उस शोख़ चितवन में
मगर रखती हैं आशिक़ सूँ अपस दिल में मलाल अँखियाँ

सियह-चश्मी हुई ज़ाहिर ललन की चश्म-पोशी में
छुपाती हैं अपस मुश्ताक़ सूँ अपना जमाल अँखियाँ