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नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को | शाही शायरी
nazar kya aae zat-e-haq kisi ko

ग़ज़ल

नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
ख़याल उस का नहीं मुतलक़ किसी को

न था आशिक़ के ख़ूँ में रंग गुलज़ार
कोई तो दे गया रौनक़ किसी को

मुक़य्यद में मुक़य्यद है वो मुतलक़
न सूझा इतना भी मुतलक़ किसी को

न कर इतनी भी नासेह हर्ज़ा-गोई
ख़ुश आती कब है ये बक़-बक़ किसी को

फ़रेब-ए-मुद्दई खाते हैं कब हम
मगर समझा है वो अहमक़ किसी को

जिगर है चाक चाक-ए-आस्तीं से
दिखाई तू ने क्या मिर्फ़क़ किसी को

रियाज़-ए-वस्ल से वक़्त-ए-सक़ीमी
न हाथ आई कभी सरमक़ किसी को

तसव्वुर में तिरे ऐ शोला-ए-हुस्न
नहीं आराम चूँ ज़ीबक़ किसी को

भरोसा क्या है दिल का बहर-ए-ग़म में
डुबो देवे न ये ज़ोरक़ किसी को

निकलने आप से देता नहीं आह
तिलिस्म-ए-गुम्बद-ए-अरज़क किसी को

दिखा दे चाँदनी में अपना मुखड़ा
सनम मिल कर ज़रा अबरक़ किसी को

'वहीद'-ए-दहर है ऐ 'मुसहफ़ी' तू
न अपने साथ कर मुल्हक़ किसी को