नज़र को तीर कर के रौशनी को देखने का
सलीक़ा है हमें भी ज़िंदगी को देखने का
किसी जलते हुए लम्हे पे अपने होंट रख दो
अगर है शौक़ जामिद ख़ामुशी को देखने का
समाअ'त में खनकती रौशनी से हो गया है
दो-बाला लुत्फ़ मिट्टी की नमी को देखने का
न जाने लौट कर कब आएगा मौसम ख़जिस्ता
तिरी आँखों की शाइस्ता हँसी को देखने का
सुना है शौक़ था उन को हुनर आता नहीं था
सुनहरे ज़ेहन की वारफ़्तगी को देखने का
यक़ीं आता नहीं लेकिन मिला था एक मौक़ा
शगुफ़्ता शहर की बे-मंज़री को देखने का
बड़ा अरमान था 'साजिद' तुम्हें क्या डर गए क्या
शब-ए-ताबाँ हवा की ख़ुद-कुशी को देखने का
ग़ज़ल
नज़र को तीर कर के रौशनी को देखने का
साजिद हमीद