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नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं | शाही शायरी
nazar ke bhed sab ahl-e-nazar samajhte hain

ग़ज़ल

नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं

सऊद उस्मानी

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नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं
जो बे-ख़बर हैं उन्हें बे-ख़बर समझते हैं

न उन की छाँव में बरकत न बर्ग-ओ-बार में फ़ैज़
वो ख़ुद-नुमूद जो ख़ुद को शजर समझते हैं

उन्हों ने झुकते हुए पेड़ ही नहीं देखे
जो अपने काग़ज़ी फल को समर समझते हैं

हिसार-ए-जाँ दर-ओ-दीवार से अलग है मियाँ
हम अपने इश्क़ को ही अपना घर समझते हैं

कुशादा-दिल के लिए दिल बहुत कुशादा है
ये मैं तो क्या मिरे दीवार-ओ-दर समझते हैं

मिरी हरीफ़ नहीं है ये नील-गूँ वुसअत
और इस फ़ज़ा को मिरे बाल-ओ-पर समझते हैं

अकेला छोड़ने वालों को ये बताए कोई
कि हम तो राह को भी हम-सफ़र समझते हैं

तुझे तो इल्म के दो चार हर्फ़ ले बैठे
समझने वाले यहाँ उम्र भर समझते हैं

समझ लिया था तुझे दोस्त हम ने धोके में
सो आज से तुझे बार-ए-दिगर समझते हैं

जो आश्नाई के ख़ंजर से आश्ना हैं 'सऊद'
वो दस्त-ए-दोस्त के सारे हुनर समझते हैं