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नज़ारा करूँ कैसे तिरी जल्वागरी का | शाही शायरी
nazara karun kaise teri jalwagari ka

ग़ज़ल

नज़ारा करूँ कैसे तिरी जल्वागरी का

मोहम्मद अब्दुलहमीद सिद्दीक़ी नज़र लखनवी

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नज़ारा करूँ कैसे तिरी जल्वागरी का
पर्दा अभी हाइल है मिरी बे-बसरी का

उस्लूब नया रास नहीं चारागरी का
बीमार पे आलम है वही बे-ख़बरी का

चसका उसे उफ़ पड़ ही गया दर-ब-दरी का
क्या कीजिए इंसाँ की इस आशुफ़्ता-सरी का

ये राह-ए-मोहब्बत है ये काँटों से भरी है
मक़्दूर नहीं सब को मिरी हम-सफ़री का

हमदम न उड़ा जामा-ए-अख़्लाक़ की धज्जी
दीवानों को होता है जुनूँ जामा-दरी का

देखा है कि खुलते नहीं दिल अहल-ए-दुवल के
भरता नहीं मुँह कासा-ए-दरयूज़ा-गरी का