नवाह-ए-वुसअत-ए-मैदाँ में हैरानी बहुत है
दिलों में इस ख़राबी से परेशानी बहुत है
कहाँ से है कहाँ तक है ख़बर इस की नहीं मिलती
ये दुनिया अपने फैलाव में अन-जानी बहुत है
बड़ी मुश्किल से ये जाना कि हिज्र-ए-यार में रहना
बहुत मुश्किल है पर आख़िर में आसानी बहुत है
बसर जितनी हुई बेकार ओ बे-मंज़िल ज़माने में
मुझे इस ज़िंदगानी पर पशेमानी बहुत है
निकल आते हैं रस्ते ख़ुद-ब-ख़ुद जब कुछ न होता हो
कि मुश्किल में हमें ख़्वाबों की अर्ज़ानी बहुत है
बहुत रौनक़ है बाज़ारों में गलियों और मोहल्लों में
पर इस रौनक़ से शहर-ए-दिल में वीरानी बहुत है
ग़ज़ल
नवाह-ए-वुसअत-ए-मैदाँ में हैरानी बहुत है
मुनीर नियाज़ी