नसीम-ए-सुब्ह गुलशन में गुलों से खेलती होगी
किसी की आख़िरी हिचकी किसी की दिल-लगी होगी
तुझे दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी
मज़ा आ जाएगा महशर में कुछ सुनने सुनाने का
ज़बाँ होगी हमारी और कहानी आप की होगी
यही आलम रहा पर्दा-नशीनी का तो ज़ाहिर है
ख़ुदाई आप से होगी न हम से बंदगी होगी
तअ'ज्जुब क्या लगी जो आग ऐ 'सीमाब' सीने में
हज़ारों दिल में अंगारे भरे थे लग गई होगी
ग़ज़ल
नसीम-ए-सुब्ह गुलशन में गुलों से खेलती होगी
सीमाब अकबराबादी