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नसीब-ए-इश्क़ मसर्रत कभी नहीं होती | शाही शायरी
nasib-e-ishq masarrat kabhi nahin hoti

ग़ज़ल

नसीब-ए-इश्क़ मसर्रत कभी नहीं होती

मुशीर झंझान्वी

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नसीब-ए-इश्क़ मसर्रत कभी नहीं होती
ये बज़्म वो है जहाँ रौशनी नहीं होती

जबीन-ए-इश्क़ के सज्दे क़ुबूल होते हैं
मिज़ाज-ए-हुस्न में जब बरहमी नहीं होती

समझ चुके हैं असीरी को हम पयाम-ए-अजल
कि ज़िंदगी-ए-क़फ़स ज़िंदगी नहीं होती

मिरे बग़ैर उन्हें कौन जान सकता है
वो यूँ गुज़रते हैं आवाज़ भी नहीं होती

तिरा सितम भी तो है एक पुर्सिश-ए-ख़ामोश
तिरी निगाह कभी अजनबी नहीं होती

बढ़े चलो यही वारफ़्तगी की मंज़िल है
रह-ए-तलब में कभी शाम ही नहीं होती

दिल एक आतिश-ए-ख़ामोश ही सही लेकिन
तुम्हारी याद में कोई कमी नहीं होती

मिरी नज़र में यक़ीनन वो नंग-ए-गुलशन है
अमीन-ए-राज़-ए-चमन जो कली नहीं होती

मिली है राह-ए-तलब में 'मुशीर' सिर्फ़ मुझे
वो ज़िंदगी जो कभी ज़िंदगी नहीं होती