EN اردو
नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है | शाही शायरी
narmi-e-baalish-e-par hum ko nahin bhati hai

ग़ज़ल

नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

;

नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है
दम-ए-शमशीर पे सर रक्खें तो नींद आती है

क्या बुरी ख़ू है मिरी भी कि ब-ईं दावा-ए-अक़्ल
मैं भी जाता हूँ वहाँ जान जहाँ जाती है

ना-क़ुबूल इतना हूँ मुर्दे को मिरे ब'अद-अज़-मर्ग
गोर में रक्खें तो मिट्टी भी नहीं खाती है

हुस्न देखा है मगर हिन्द की तस्वीरें का
लैला बाज़ार में शक्ल अपनी जो बदलाती है

न बचेगा कोई हरगिज़ जो है रुख़ की ये सफ़ा
न जियेगा कोई मुतलक़ जो ये ख़ुश गाती है

ख़ैर-सल्ला से नसीम-ए-सहरी घर जावे
कर के ज़िक्र-ए-रुख़-ए-गुल क्यूँ मुझे पिटवाती है

सितम-बाद-ए-ख़िज़ाँ से जो कोई गुल की कली
शाख़ पर ख़ुश्क हो रह जाती है मुरझाती है

बे-कसी अपनी का आलम मुझे आ जाए है याद
कि गरेबाँ में मिरा सर यूँही झुकवाती है

'मुसहफ़ी' की कोई उम्मीद तो बर ला या-रब!
मुद्दतों से ये तिरे दर का मुनाजाती है