नर्ग़े में घटाओं के रहा है न रहेगा
ख़ुर्शेद मोहब्बत का छुपा है न छुपेगा
हो जाते हैं नाकाम ख़िरद-मंदों के फ़ित्ने
सर-ए-अहल-ए-जुनूँ का न झुका है न झुकेगा
तुम क्यूँ हो परेशान कि तक़दीर का लिक्खा
दुनिया के मिटाने से मिटा है न मिटेगा
तरकश से तकब्बुर के जो इतरा के चला है
वो तीर निशाने पे लगा है न लगेगा
तालीम-ओ-हुनर ही वो ख़ज़ाना है जो अब तक
दौलत के लुटेरों से लुटा है न लुटेगा
हो जाता है फ़ौरन जो पशेमान ख़ता पर
नज़रों से अज़ीज़ों की गिरा है न गिरेगा
मंसब जहाँ ज़ालिम के असर में हो वहाँ पर
मज़लूम को इंसाफ़ मिला है न मिलेगा
हाजत से ज़ियादा की तलब सब को है 'तालिब'
क़िस्मत से सिवा फिर भी मिला है न मिलेगा
ग़ज़ल
नर्ग़े में घटाओं के रहा है न रहेगा
अयाज़ अहमद तालिब