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नक़्श-ए-क़दम हुआ हूँ मोहब्बत की राह का | शाही शायरी
naqsh-e-qadam hua hun mohabbat ki rah ka

ग़ज़ल

नक़्श-ए-क़दम हुआ हूँ मोहब्बत की राह का

सिराज औरंगाबादी

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नक़्श-ए-क़दम हुआ हूँ मोहब्बत की राह का
क्या दिल-कुशा मकाँ है मिरी सज्दा-गाह का

गर्मी सीं आफ़्ताब-ए-क़यामत की क्यूँ दरूँ
साया है मुझ कूँ सर्व-ए-क़यामत-पनाह का

नासूर हो कि रोज़-ए-क़यामत तलक बहे
जिस के जिगर में तीर लगे तुझ निगाह का

पिव का जमाल देख हुआ चाक चाक दिल
जियूँ कि कताँ पे अक्स पड़े नूर-ए-माह का

डोरे नहीं हैं सुर्ख़ तिरी चश्म-ए-मस्त में
शायद चढ़ा है ख़ून किसी बे-गुनाह का

दिल तुझ बिरह की आग सीं क्यूँकर निकल सके
शो'ला सें क्या चलेगा कहो बर्ग काह का

सुम्बुल है जियूँ कि जल्वा-नुमा जूएबार पर
आँखों में मेरी अक्स दो-ज़ुल्फ़-ए-सियाह का

महताब-रू के रुख़ पे सियह ख़त नहीं 'सिराज'
जा कर खला हुआ है मिरे दूद आह का