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नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा | शाही शायरी
naKHl lale ja jab zamin se uTha

ग़ज़ल

नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
शोला इक दो वजब ज़मीं से उठा

तू जो कल ख़ाक-ए-कुश्तगाँ से गया
शोर उस दम अजब ज़मीं से उठा

बैठे बैठे जो हो गया वो खड़ा
इक सितारा सा शब ज़मीं से उठा

क़द वो बूटा सा देख कहती है ख़ल्क़
ये तो पौदा अजब ज़मीं से उठा

तिश्ना सहबा-ए-वस्ल का तेरी
हश्र को ख़ुश्क-लब ज़मीं से उठा

बैठ कर उठ गया जहाँ वो शोख़
फ़ित्ना वाँ जब न तब ज़मीं से उठा

सोचता क्या है देख देख उसे
बिन उठाए वो कब ज़मीं से उठा

थी क़ज़ा यूँही तेरे कुश्ते की
लाश को उस की अब ज़मीं से उठा

गुल नहीं 'मुसहफ़ी' का दिल है ये
उस को ऐ बे-अदब ज़मीं से उठा