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नई दुनिया मुजस्सम दिलकशी मालूम होती है | शाही शायरी
nai duniya mujassam dilkashi malum hoti hai

ग़ज़ल

नई दुनिया मुजस्सम दिलकशी मालूम होती है

नुशूर वाहिदी

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नई दुनिया मुजस्सम दिलकशी मालूम होती है
मगर इस हुस्न में दिल की कमी मालूम होती है

हिजाबों में नसीम-ए-ज़िंदगी मालूम होती है
किसी दामन की हल्की थरथरी मालूम होती है

मिरी रातों की ख़ुनकी है तिरे गेसू-ए-पुर-ख़म में
ये बढ़ती छाँव भी कितनी घनी मालूम होती है

वो अच्छा था जो बेड़ा मौज के रहम ओ करम पर था
ख़िज़र आए तो कश्ती डूबती मालूम होती है

ये दिल की तिश्नगी है या नज़र की प्यास है साक़ी
हर इक बोतल जो ख़ाली है भरी मालूम होती है

दम-ए-आख़िर मुदावा-ए-दिल-ए-बीमार क्या मअ'नी
मुझे छोड़ो कि मुझ को नींद सी मालूम होती है

दिया ख़ामोश है लेकिन किसी का दिल तो जलता है
चले आओ जहाँ तक रौशनी मालूम होती है

नसीम-ए-ज़िंदगी के सोज़ से मुरझाई जाती है
ये हस्ती फूल की इक पंखुड़ी मालूम होती है

जिधर देखा 'नुशूर' इक आलम-ए-दीगर नज़र आया
मुसीबत में ये दुनिया अजनबी मालूम होती है