नहीं होने का ये ख़ून-ए-जिगर बंद
न बाँधी आस्तीन आँखों पे तर बंद
न पूछो बेबसी अपना है वो हाल
असीर-ए-रिश्ता-बर-पा मुर्ग़-ए-पर बंद
जुदा होता नहीं पहलू से दम-भर
ये दाग़-ए-दिल है या कोई जिगर-बंद
कहीं ऐसा न हो वो आ के फिर जाए
किसी शब बंद हों आँखें न दर बंद
यही क़ासिद पता है उस के घर का
उधर जा जिस तरफ़ है रहगुज़र बंद
ये चौसर इश्क़-बाज़ी की है ऐ दिल
न चलना चाल वो जिस से हो घर बंद
इजाज़त इक तड़प की दे जो सय्याद
क़फ़स को ले उड़ें हम मुर्ग़-ए-पर-बंद
ये हाल-ए-ना-तवानी है कि आँखें
खुलीं जो एक दम तो दोपहर बंद
नहीं ये पुतलियाँ ओ चश्म-ए-फ़त्ताँ
तिरे घर में हैं दो फ़ित्ने नज़र-बंद
मैं घबराता हूँ महरम से तुम्हारी
खुले दिल की गिरह खोलो अगर बंद
दुआ ये माँगता हूँ मैं शब-ए-वस्ल
क़यामत तक रही बाब-ए-सहर बंद
ख़ुदा जाने कहाँ हूँ और क्या हूँ
खुले अहवाल क्या जब हो ख़बर बंद
जो हाथ आएँ उसे ये दाना-ए-अश्क
रही मुश्त-ए-सदफ़ मिस्ल-ए-गुहर-बंद
लिखेगा हाल-ए-दिल ऐ 'बहर' कब तक
बस अब वैफ़र लगा मक्तूब कर बंद
ग़ज़ल
नहीं होने का ये ख़ून-ए-जिगर बंद
इमदाद अली बहर