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नए चराग़ नई रौशनी अता करते | शाही शायरी
nae charagh nai raushni ata karte

ग़ज़ल

नए चराग़ नई रौशनी अता करते

अनवर ताबाँ

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नए चराग़ नई रौशनी अता करते
अगर पुराने दिए उन से कुछ वफ़ा करते

मैं ज़िंदगी तेरे एहसान में दबा ही रहा
इक उम्र गुज़री तिरा क़र्ज़ भी अदा करते

तुझे भी आते मुसाफ़िर सलाम मंज़िल के
ब-सद-ख़ुलूस जो तेरे क़दम उठा करते

ख़ुदी पसंद अनासिर हयात कि ख़ातिर
जो एहतिजाज न करते तो और क्या करते

समझ से काम जो लेता हर एक बशर 'ताबाँ'
न हाहा-कार ही मचते न घर जला करते