नब्ज़-ए-अय्याम तिरे खोज में चलना चाहे
वक़्त ख़ुद शीशा-ए-साअ'त से निकलना चाहे
दस्तकें देता है पैहम मिरी शिरयानों में
एक चश्मा कि जो पत्थर से उबलना चाहे
मुझ को मंज़ूर है वो सिलसिला-ए-संग-ए-गिराँ
कोहकन मुझ से अगर वक़्त बदलना चाहे
थम गया आ के दम-ए-बाज़-पसीं लब पे वो नाम
दिल ये मोती न उगलना न निगलना चाहे
हम तो ऐ दौर-ए-ज़माँ ख़ाक के ज़र्रे ठहरे
तू तो फूलों को भी क़दमों में मसलना चाहे
कह रही है ये ज़मिस्ताँ की शब-ए-चारदहुम
कोई परवाना जो इस आग में जलना चाहे
उम्र इसी ठोकरें खाने के अमल में गुज़री
जिस तरह संग ढलानों पे सँभलना चाहे
सुब्ह-दम जिस ने उछाला था फ़ज़ा में ख़ुर्शेद
दिल सर-ए-शाम उसी बाम पे ढलना चाहे
ग़ज़ल
नब्ज़-ए-अय्याम तिरे खोज में चलना चाहे
ख़ुर्शीद रिज़वी

