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नब्ज़-ए-अय्याम तिरे खोज में चलना चाहे | शाही शायरी
nabz-e-ayyam tere khoj mein chalna chahe

ग़ज़ल

नब्ज़-ए-अय्याम तिरे खोज में चलना चाहे

ख़ुर्शीद रिज़वी

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नब्ज़-ए-अय्याम तिरे खोज में चलना चाहे
वक़्त ख़ुद शीशा-ए-साअ'त से निकलना चाहे

दस्तकें देता है पैहम मिरी शिरयानों में
एक चश्मा कि जो पत्थर से उबलना चाहे

मुझ को मंज़ूर है वो सिलसिला-ए-संग-ए-गिराँ
कोहकन मुझ से अगर वक़्त बदलना चाहे

थम गया आ के दम-ए-बाज़-पसीं लब पे वो नाम
दिल ये मोती न उगलना न निगलना चाहे

हम तो ऐ दौर-ए-ज़माँ ख़ाक के ज़र्रे ठहरे
तू तो फूलों को भी क़दमों में मसलना चाहे

कह रही है ये ज़मिस्ताँ की शब-ए-चारदहुम
कोई परवाना जो इस आग में जलना चाहे

उम्र इसी ठोकरें खाने के अमल में गुज़री
जिस तरह संग ढलानों पे सँभलना चाहे

सुब्ह-दम जिस ने उछाला था फ़ज़ा में ख़ुर्शेद
दिल सर-ए-शाम उसी बाम पे ढलना चाहे