नाज़ भला किस बात का तुझ को पास-ए-हुनर जब कुछ भी नहीं
मंज़िल पर पहुँचेगा कैसे रख़्त-ए-सफ़र जब कुछ भी नहीं
देख भटक जाए न मुसाफ़िर आँख की भूल-भुलय्या में
किस को ढूँडे शोख़-नज़र ता-हद्द-ए-नज़र जब कुछ भी नहीं
मेरी निगाहों में दुनिया की हर शय से नायाब है तू
और किसी को क्यूँ चाहूँ तुझ से बेहतर जब कुछ भी नहीं
मैं भी फ़ानी तू भी फ़ानी सारा आलम फ़ानी है
क्या ख़द-ओ-ख़ाल पे नाज़ करें दुनिया में अमर जब कुछ नहीं
जुगनू और सितारे मिल कर तुझ को क्या ललकारेंगे
तेरे आगे नूर के पैकर शम्स-ओ-क़मर जब कुछ भी नहीं
बातिल को अब कौन दुहाई क़ानून और इंसाफ़ की दे
बंदों का क्या ख़ौफ़ उसे अल्लाह का डर जब कुछ भी नहीं
ताज-महल फीका लगता है उस के रूप के आगे 'शाद'
तेरी क्या औक़ात भला संग-ए-मरमर जब कुछ भी नहीं
ग़ज़ल
नाज़ भला किस बात का तुझ को पास-ए-हुनर जब कुछ भी नहीं
शमशाद शाद