ना'श उस आशिक़-ए-नाशाद की उठवाने दो
अब उसे ज़ेर-ए-ज़मीं चैन से सो जाने दो
दिल बहल जाए तो तन्हाई की कुल्फ़त भी मिटे
शब-ए-फ़ुर्क़त की बलाओं को तो आ जाने दो
सैंकड़ों गौहर-ए-नायाब तो पैदा होंगे
चंद झाले मिरी आँखों से बरस जाने दो
बे कफ़न फेंक ही देना मिरे लाशे को मगर
कूचा-ए-पाक में महबूब के मर जाने दो
लिए बैठा हूँ बयाबान में पहलू ख़ाली
क्या मिलाए हैं जुनूँ तू ने ये वीराने दो
मय की हाजत न कभी मुझ को रही ऐ साक़ी
ख़ूँ से लबरेज़ हैं उन आँखों के पैमाने दो
शम्अ'-रू जाँ भी हुई दिल भी हुआ तुझ पे फ़िदा
जल गए इश्क़ के हाथों से ये परवाने दो
साथ मेरे दिल-ए-नाशाद है तन्हा मैं नहीं
आए हैं दर पे शह-ए-दीं तिरे दीवाने दो
साथ उस ज़ुल्फ़ के उलझे न हमारी क़िस्मत
अब इसे तुम दिल-ए-सद-चाक से सुलझाने दो
होगा पुर-नूर सियह-ख़ाना हमारे दिल का
इस में तुम ग़ौस-ए-ख़ुदा को ज़रा आ जाने दो
रह चुका दैर-ओ-कलीसा में बहुत मुद्दत तक
ऐ जुनूँ सू-ए-हरम अब तो मुझे जाने दो
उन के फ़िक़्रों में न आएँगे ये सच्चे आशिक़
वाइ'ज़ आए हैं जो समझाने तो समझाने दो
फ़ख़्र है नाज़ है उस पर तो 'जमीला' मुझ को
तुम सग-कू-ए-जमाली मुझे कहलाने दो

ग़ज़ल
ना'श उस आशिक़-ए-नाशाद की उठवाने दो
जमीला ख़ुदा बख़्श