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नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं | शाही शायरी
nalon se mere kab tah-o-baala jahan nahin

ग़ज़ल

नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं

मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा

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नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं
कब आसमाँ ज़मीन-ओ-ज़मीं आसमाँ नहीं

क़ातिल की चश्म-ए-तर न हो ये ज़ब्त-ए-आह देख
जूँ शम्अ' सर कटे पे उठा याँ धुआँ नहीं

ऐ बुलबुलान-ए-शो'ला-दम इक नाला और भी
गुम-कर्दा-राह-ए-बाग़ हूँ याद आशियाँ नहीं

इस बज़्म में नहीं कोई आगाह वर्ना कब
वाँ ख़ंदा ज़ेर-ए-लब उधर अश्क-ए-निहाँ नहीं

ऐ दिल तमाम नफ़अ' है सौदा-ए-इश्क़ में
इक जान का ज़ियाँ है सो ऐसा ज़ियाँ नहीं

नाज़-ओ-निगह रविश सभी लागू हैं जान के
है कौन अदा वो तेरी कि जो जाँ-सिताँ नहीं

मिलना तिरा ये ग़ैर से हो बहर-ए-मस्लहत
हम को तो सादगी से तिरी ये गुमाँ नहीं

आज़ुर्दा तक भी कुछ न है उस के रू-ब-रू
माना कि आप सा कोई जादू-बयाँ नहीं