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नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है | शाही शायरी
nalon se agar maine kabhi kaam liya hai

ग़ज़ल

नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है
ख़ुद ही असर-ए-नाला से दिल थाम लिया है

आज़ादी-ए-अंदोह-फ़ज़ा से है रिहाई
अब मैं ने कुछ आराम तह-ए-दाम लिया है

उठती थीं उमंगें उन्हें बढ़ने न दिया फिर
मैं ने दिल-ए-नाकाम से इक काम लिया है

जुज़ मश्ग़ला-ए-नाला ओ फ़रियाद न था कुछ
जो काम कि दिल से सहर ओ शाम लिया है

ख़ुद पूछ लो तुम अपनी निगाहों से वो क्या था
जो तुम ने दिया मैं ने वो पैग़ाम लिया है

था तेरा इशारा कि न था मैं ने दिया दिल
और अपने ही सर जुर्म का इल्ज़ाम लिया है

ग़म कैसे ग़लत करते जुदाई में तिरी हम
ढूँडा है तुझे हाथ में जब जाम लिया है

आराम के अब नाम से मैं डरने लगा हूँ
तकलीफ़ उठाई है जब आराम लिया है

मालूम नहीं ख़ूब है जो वाक़िफ़-ए-फ़न हैं
'वहशत' ने महाकात से क्या काम लिया है