नाख़ुदा सख़्त ख़फ़ा गरचे हमीं पर थे बहुत
हम ने भी अज़्म के पहने हुए ज़ेवर थे बहुत
तू ने दस्तक ही नहीं दी किसी दरवाज़े पर
वर्ना खुलने को तो दीवार में भी दर थे बहुत
उड़ नहीं पाया अगरचे ये फ़ज़ा भी थी खुली
मेरे अंदर से मुझे जकड़े हुए डर थे बहुत
जीत तेरा ही मुक़द्दर थी सो तू जीत गया
वर्ना हारे हुए लश्कर में सिकंदर थे बहुत
ख़ाम थी प्यास तिरी वर्ना तो इस दश्त में भी
एक एड़ी के रगड़ने पे समुंदर थे बहुत
छिन गई आँख से हैरत कि तिरी बस्ती में
हर घड़ी रंग बदलते हुए मंज़र थे बहुत
वक़्त की मौज हमें पार लगाती कैसे
हम ने ही जिस्म से बाँधे हुए पत्थर थे बहुत
ग़ज़ल
नाख़ुदा सख़्त ख़फ़ा गरचे हमीं पर थे बहुत
जलील हैदर लाशारी