न वो घर रहा न वो बाम-ओ-दर न वो चिलमनें न वो पालकी
मगर अब भी मेरी ज़बाँ पे है वही दास्ताँ सिन-ओ-साल की
चलो बाल-ओ-पर को समेट लें करें फ़िक्र अब किसी डाल की
ये ग़ुरूब-ए-मेहर का वक़्त है ये घड़ी है दिन के ज़वाल की
सभी मौसमों से गुज़र गया कोई बोझ दिल पे लिए हुए
मुझे रास आई न रुत कोई न वो हिज्र की न विसाल की
था दिलों का ये भी इक इम्तिहाँ कि तकल्लुफ़ात थे दरमियाँ
मुझे डर था उस के जवाब का उसे फ़िक्र मेरे सवाल की
जो चले तो राह-ए-अमाँ नहीं जो रुके तो मंज़िलें खो गईं
तिरी रहगुज़र भी अजीब है तिरी मंज़िलें भी कमाल की
मिरे ज़ख़्म सारे महक उठे जो चली हवा-ए-निहाल-ए-ग़म
कोई दश्त-ए-जाँ से गुज़र गया उठी गर्द तेरे ख़याल की
वो मुझे मिला भी तो इस तरह मिलें जैसे शम्स-ओ-क़मर 'ज़िया'
था जो लम्हा इस के उरूज का वो घड़ी थी मेरे ज़वाल की

ग़ज़ल
न वो घर रहा न वो बाम-ओ-दर न वो चिलमनें न वो पालकी
ज़िया फ़ारूक़ी