न तो काम रखिए शिकार से न तो दिल लगाइए सैर से
बस अब आगे हज़रत-ए-इश्क़-जी चले जाइए घर ही को ख़ैर से
वो जो गुटका पारे का मुँह में ले पड़े उड़ते फिरते हैं जोगी-जी
सो तो भर्तपुर से उदास हो चले आए क़िला-ए-दैर से
नहीं होते आम के रू-ब-रू हमें क़िबला ख़ास है आरज़ू
कि ख़ुदा करे पड़े गुफ़्तुगू किसी पीर-ओ-मुर्शिद-ए-दैर से
कहो किस वसीले से शैख़ के शक-ओ-शुबह होवे कमाल में
कि जो नेमत आप को पहुँची है सो मियाँ-ग़ुलाम-ज़ुबैर से
जो ख़फ़ा हुए तो हुए अजी जो लड़े-भिड़े तो लड़े सही
गिला है सो यार-ए-अज़ीज़ से न कि शिकवा सूरत-ए-ग़ैर से
मुझे इक हयात दोबारा दे उसी क़ुदरत अपनी से ऐ ख़ुदा
कि ख़िताब-ए-फ़िक़रा-ए-कम-लिबस्त किया था जिन ने उज़ैर से
वो जो है अली-ए-वली वसी है मोहम्मद-ए-अरबी अख़ी
सो तू अब्द-ए-ख़ास-ए-करीम है उसे दुश्मनी है नुसैर से
यही चाल अपनी है 'इंशा' अब कभी तो दरख़्तों से ख़लते हैं
कभी है सबा से ख़िताब कुछ कभी वहश से कभी तैर से
ग़ज़ल
न तो काम रखिए शिकार से न तो दिल लगाइए सैर से
इंशा अल्लाह ख़ान