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न तीरगी के लिए हैं न रौशनी के लिए | शाही शायरी
na tirgi ke liye hain na raushni ke liye

ग़ज़ल

न तीरगी के लिए हैं न रौशनी के लिए

माया खन्ना राजे बरेलवी

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न तीरगी के लिए हैं न रौशनी के लिए
शब-ओ-सहर के तक़ाज़े हैं बंदगी के लिए

हमारा ख़ून भी हाज़िर है ऐ ख़िरद-मंदो
तुम्हारे दौर की बे-कैफ़ ज़िंदगी के लिए

सवाद-ए-शाम तो है आम बज़्म-ए-फितरत में
मगर तुलू-ए-सहर है किसी किसी के लिए

रह-ए-तलब में अँधेरों को कोसने वालो
किसी ने दिल भी जलाया है रौशनी के लिए

कुछ आइने भी तिरी अंजुमन में टूटे हैं
तिरे लबों के तबस्सुम तिरी ख़ुशी के लिए

फ़क़ीह-ए-शहर से मेरा सलाम कह देना
कि ज़िंदगी भी इबादत है ज़िंदगी के लिए

रिदा-ए-बिन्त-ए-इनब बन गई बिसात-ए-नुजूम
ये एहतिमाम है 'राजे' किस आदमी के लिए