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न ठेरी जब कोई तस्कीन-ए-दिल की शक्ल यारों में | शाही शायरी
na Theri jab koi taskin-e-dil ki shakl yaron mein

ग़ज़ल

न ठेरी जब कोई तस्कीन-ए-दिल की शक्ल यारों में

जलाल लखनवी

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न ठेरी जब कोई तस्कीन-ए-दिल की शक्ल यारों में
तो आ निकले तड़प कर हम तुम्हारे बे-क़रारों में

किसी के इश्क़ में दर्द-ए-जिगर से दिल ये कहता है
इधर भी आ निकलना हम भी हैं उम्मीदवारों में

वो मातम बज़्म-ए-शादी है तुम्हारी जिस में शिरकत हो
वो मरना ज़िंदगी है तुम जहाँ हो सोगवारों में

तअ'ल्ली से ये नफ़रत है कि बा'द-ए-मर्ग ख़ाक अपनी
अगर उठती भी है जा बैठती है ख़ाकसारों में

हमारे दिल ने हम से बेवफ़ाई कर के क्या पाया
वहाँ भी जा के ठहराया गया बे-ए'तिबारों में

वो खींचूँगा 'जलाल' आहें कि उस की ख़ाक उड़ा देंगी
फ़लक ने पीस डाला है समझ कर ख़ाकसारों में