न सहरा है न अब दीवार-ओ-दर है
चमन में नग़्मा-गर साज़-ए-सहर है
सुराग़-ए-कारवान-ए-रंग-ओ-बू से
सबा आवारा-ए-गर्द-ए-सफ़र है
असीरो अब दर-ए-ज़िंदाँ करो बाज़
सर-ए-नाख़ुन कोई उक़्द-ए-गुहर है
नदीमो दाद दो अहल-ए-जुनूँ को
नमक-दाँ ज़ख़्म-ए-पा है ज़ख़्म-ए-सर है
ग़ज़ल
न सहरा है न अब दीवार-ओ-दर है
अर्शी भोपाली