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न सहन-ओ-बाम न दीवार-ओ-दर पुराने हैं | शाही शायरी
na sahn-o-baam na diwar-o-dar purane hain

ग़ज़ल

न सहन-ओ-बाम न दीवार-ओ-दर पुराने हैं

महशर बदायुनी

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न सहन-ओ-बाम न दीवार-ओ-दर पुराने हैं
अगर मकीं हैं पुराने तो घर पुराने हैं

सख़ावतों ही के दम से है ताज़गी का भरम
समर न दें तो यक़ीनन शजर पुराने हैं

दिल ऐसी सूरत-ए-तामीर पर जमे कब तक
तमाम नक़्श ही दीवार पर पुराने हैं

हवा की लहर है अब जिस तरह भी शोहरत दे
जुनूँ पुराना न आशुफ़्ता-सर पुराने हैं

क़बाहतें तो यहीं हैं मसाफ़तों में मिरी
सफ़र नया है शरीक-ए-सफ़र पुराने हैं

मैं ना-बलद हूँ रफ़ू की रिवायतों से तो फिर
निकलते क्यूँ नहीं जो बख़िया-गर पुराने हैं

ये रब्त-ए-ख़ैर निशाँ है सफ़-ए-हुनर के लिए
जो कुछ नए हैं तो कुछ दीदा-वर पुराने हैं

सभी ख़राबे हैं दोश-ए-ज़मीं पे बार मगर
ज़ियादा बोझ वो हैं जो खंडर पुराने हैं