न साथ आ मिरे मैं गिरते फ़ासलों में हूँ
ग़ुबार-ए-दश्त हूँ और तेज़ आँधियों में हूँ
न जाने क़स्द कहाँ का है क्यूँ निकाले क़दम
ज़माना बीत गया कैसी हिजरतों में हूँ
ख़ुद अपने शाम ओ सहर में उलझ गया ऐसा
मैं आसमाँ हूँ मगर अपनी गर्दिशों में हूँ
बहुत कुशादा फ़लक है बड़ी बसीत ज़मीं
मगर ये सब मैं समेटे हुए परों में हूँ
उठाए फिरते हैं सर मेरा एक नेज़े पर
बुलंद हूँ मैं यहाँ भी जो दुश्मनों में हूँ
कोई भी हादसा-ए-जाँ हो उस का मंज़र में
उठा के देख लो अख़बार सुर्ख़ियों में हूँ
कोई सदा कोई हलचल नहीं है बाहर की
मैं अपनी गूँज में हूँ अपनी आहटों में हूँ
कोई भी अक्स नहीं जिस में मेरा चेहरा हो
मैं आईना हूँ मगर कितनी हैरतों में हूँ
नशा है नींद का आँखों में टूटता है बदन
कि जैसे मैं भी लगातार रतजगों में हूँ
कि जैसे मुझ को डुबोया गया है पानी में
कि जैसे मैं कोई शातिर शनावरों में हूँ
कि जैसे मुझ को चढ़ाया गया है सूली पर
कि जैसे मैं भी बड़े ऊँचे सर-फिरों में हूँ
कि जैसे मुझ पे है छाया शिकार का आसेब
कि जैसे मैं भी ख़तरनाक जंगलों में हूँ
कि जैसे लोग मुझे देखने को आए हैं
कि जैसे मैं लुटे-हारे मुसाफिरों में हूँ
रहूँ मैं ख़ुद को समेटे हुए सँभाले हुए
ये 'रम्ज़' मेरी सज़ा है कि दोस्तों में हूँ
ग़ज़ल
न साथ आ मिरे मैं गिरते फ़ासलों में हूँ
मोहम्मद अहमद रम्ज़