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न रोता ज़ार-ज़ार ऐसा न करता शोर-ओ-शर इतना | शाही शायरी
na rota zar-zar aisa na karta shor-o-shar itna

ग़ज़ल

न रोता ज़ार-ज़ार ऐसा न करता शोर-ओ-शर इतना

सफ़ी औरंगाबादी

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न रोता ज़ार-ज़ार ऐसा न करता शोर-ओ-शर इतना
इलाही क्या करूँ दर्द-ए-जिगर इतना जिगर इतना

बुलाने के तरीक़े से बुलाया कीजिए हम को
रहे मल्हूज़-ए-ख़ातिर कम से कम बार-ए-दिगर इतना

वो जितना मुझ से मिलते हैं उसी मिलने में ख़ूबी है
किसी से भी मिले तो बस मिले हर इक बशर इतना

तिरे साथ आज कैसे कैसे ज़ालिम याद आए हैं
न रोए थे न रोएँगे कभी हम उम्र-भर इतना

वही लोग आप के नज़दीक सच्चे आशिक़ों में हैं
कि जिन की आँख में आँसू नहीं है शोर-ओ-शर इतना

बड़े भोले हैं क्या दुनिया में भोले ऐसे होते हैं
उन्हीं मैं क्या समझता हूँ न समझे उम्र-भर इतना

नहीं मा'शूक़ तो फिर क्या बला हैं कोई आफ़त हैं
नया ग़ुस्सा है उन का आज इतनी बात पर इतना

वो मुझ से किस लिए मिलते हैं क्या मा'लूम लोगों को
समझते होंगे सब उन पर भी है इस का असर इतना

तिरे आशिक़ की सूरत अब तो पहचानी नहीं जाती
सताते हैं भला इस तरह ऐसा इस क़दर इतना

किसी सूरत ये शानदर-ए-दिलबरी देखी नहीं जाती
मिरी आँखें भी ले जा और इक एहसान कर इतना

किसी को अपनी बर्बादी का बाइ'स क्या बताएँ हम
मोहब्बत है बुरी शय जानता है हर बशर इतना

लुटेरों की बन आए मुझ को शादी मर्ग हो जाए
कहा था किस ने ऐ दाता मिरे दामन को भर इतना

ज़रा बहर-ए-ख़ुदा इंसाफ़ कर और भूलने वाले
तग़ाफ़ुल शेवा-ए-माशूक़ होता है मगर इतना

नहीं है बे-ख़ुदी ही की तमन्ना हम को ऐ साक़ी
तिरे मस्तों का सदक़ा कुछ ज़रा सा घूँट-भर इतना

अदू हम से तुम्हारे ज़ुल्म का शिकवा नहीं करते
दिखाते हैं कि देखो हम भी रखते हैं जिगर इतना

मुझे जीने से तुम मायूस ना-उम्मीद ही रक्खो
तसल्ली दो मगर इतनी दिलासा दो मगर इतना

दिया ख़त उन को लेकिन कब दिया जब थे वो ग़ुस्से में
न समझा था पयामी की समझ इतनी है सर इतना

'सफ़ी' क्यूँ क़द्र का तालिब हुआ है इस ज़माने में
अरे कम-बख़्त तेरे पास कब है माल-ओ-ज़र इतना