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न पूछ ''गिर्या-ए-ख़ूँ का तिरे है क्या बाइस'' | शाही शायरी
na puchh girya-e-KHun ka tere hai kya bais

ग़ज़ल

न पूछ ''गिर्या-ए-ख़ूँ का तिरे है क्या बाइस''

क़ाएम चाँदपुरी

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न पूछ ''गिर्या-ए-ख़ूँ का तिरे है क्या बाइस''
सबब तो और नहीं कुछ मगर तिरा बाइस

अगरचे शैख़ है पीना शराब फ़ेल-ए-शनीअ
प क्या करूँ कि कई दिन से थी हुआ बाइस

दो-चंद गिर्या की तबरीद से हुई तब इश्क़
ज़ियादती का मरज़ की है याँ दवा बाइस

न जुर्म उस का है साबित न कुछ मिरी तक़्सीर
ख़ुदा ही जाने कि रंजिश का क्या हुआ बाइस

रहा मैं उस से गिरफ़्ता इक उम्र तक लेकिन
किया जो ख़ूब तअम्मुल तो कुछ न था बाइस

तरह उस आब की जो पैरने से हो दिरहम
हुए हैं मेरे तशत्तुत के आश्ना बाइस

कभू खिला न दम-ए-सर्द से ये दिल 'क़ाएम'
अगरचे खिलने का ग़ुंचा के है सबा बाइस