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न फूल हूँ न सितारा हूँ और न शो'ला हूँ | शाही शायरी
na phul hun na sitara hun aur na shoala hun

ग़ज़ल

न फूल हूँ न सितारा हूँ और न शो'ला हूँ

रिफ़अत सरोश

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न फूल हूँ न सितारा हूँ और न शो'ला हूँ
गुहर हूँ दर्द का और अश्क बन के रहता हूँ

वो एक बच्चा है हसरत से देखता है मुझे
मैं उस के हाथ में टूटा हुआ खिलौना हूँ

ये सोच कर कि बिछड़ना है एक दिन ख़ुद से
मैं अपने-आप से पहरों लिपट के रोया हूँ

अजीब शख़्स मिरी ज़िंदगी में आया था
न याद रखूँ उसे और न भूल सकता हूँ

लरज़ रही हैं मिरी उँगलियाँ क़लम थामे
न जाने आज मैं क्या बात लिखने वाला हूँ

मुझे पुकार कि मैं डूब ही न जाऊँ कहीं
मैं बे-क़रार समुंदर में इक जज़ीरा हूँ

गुज़र चुके हैं बहुत कारवाँ इधर से 'सरोश'
मगर मैं अपने ही गर्द-ए-सफ़र से लिपटा हूँ