EN اردو
न पहुँचे छूट कर कुंज-ए-क़फ़स से हम नशेमन तक | शाही शायरी
na pahunche chhuT kar kunj-e-qafas se hum nasheman tak

ग़ज़ल

न पहुँचे छूट कर कुंज-ए-क़फ़स से हम नशेमन तक

अब्दुल्ल्ला ख़ाँ महर लखनवी

;

न पहुँचे छूट कर कुंज-ए-क़फ़स से हम नशेमन तक
पर-ए-पर्वाज़ ने यारी न की दीवार-ए-गुलशन तक

वो बे-दिल हूँ कि मुझ से दोस्ती करता है दुश्मन तक
वो रहरव हूँ कि मुझ को राह बतलाता है रहज़न तक

पस-ए-मुर्दन ये ऐ मश्शाता-ए-बाद-ए-सबा करना
हमारी ख़ाक सुर्मा बन के पहुँचे चश्म-ए-रौज़न तक

ख़िज़ाँ में देख लेना वादी-ए-पुर-ख़ार से बद-तर
चमन भी है बहार-ए-लाला-ओ-नसरीन-ओ-सोसन तक

किधर आया है दिल पछताओगे नादाँ न हो देखो
न पहुँचोगे कभी ऐ 'मेहर' तुम उस शोख़-ए-हर-फ़न तक