न पहुँचे छूट कर कुंज-ए-क़फ़स से हम नशेमन तक
पर-ए-पर्वाज़ ने यारी न की दीवार-ए-गुलशन तक
वो बे-दिल हूँ कि मुझ से दोस्ती करता है दुश्मन तक
वो रहरव हूँ कि मुझ को राह बतलाता है रहज़न तक
पस-ए-मुर्दन ये ऐ मश्शाता-ए-बाद-ए-सबा करना
हमारी ख़ाक सुर्मा बन के पहुँचे चश्म-ए-रौज़न तक
ख़िज़ाँ में देख लेना वादी-ए-पुर-ख़ार से बद-तर
चमन भी है बहार-ए-लाला-ओ-नसरीन-ओ-सोसन तक
किधर आया है दिल पछताओगे नादाँ न हो देखो
न पहुँचोगे कभी ऐ 'मेहर' तुम उस शोख़-ए-हर-फ़न तक
ग़ज़ल
न पहुँचे छूट कर कुंज-ए-क़फ़स से हम नशेमन तक
अब्दुल्ल्ला ख़ाँ महर लखनवी