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न मुरव्वत है न उल्फ़त न वफ़ा मेरे बा'द | शाही शायरी
na murawwat hai na ulfat na wafa mere baad

ग़ज़ल

न मुरव्वत है न उल्फ़त न वफ़ा मेरे बा'द

मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़

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न मुरव्वत है न उल्फ़त न वफ़ा मेरे बा'द
मेरा सरमाया भी दुनिया से उठा मेरे बा'द

बज़्म-ए-मातम ही में आ जाओ ज़रा मेरे बा'द
चाहिए कुछ तो तुम्हें पास-ए-वफ़ा मेरे बा'द

शम-ए-मदफ़न से उलझती है सबा मेरे बा'द
कैसी बिगड़ी है ज़माने की हवा मेरे बा'द

चर्ख़ कम-ज़र्फ़ है सर-गर्म-ए-जफ़ा मेरे बा'द
उस को मरक़द भी खटकता है मिरा मेरे बा'द

कौन लेता था ग़म-ए-अर्ज़-ओ-समा मेरे बा'द
मरने वाला कोई पैदा न हुआ मेरे बा'द

हाए फिर भी न मिटा उन की तबीअ'त का ग़ुबार
कर चुके ख़ाक मिरी वक़्फ़-ए-सबा मेरे बा'द

हुस्न का देखने वाला कोई बाक़ी न रहा
किस से करते हो तुम अब शर्म-ओ-हया मेरे बा'द

तुम ने दो फूल तो मदफ़न पे चढ़ाए होते
तुम से इतना भी कभी हो न सका मेरे बा'द

हो गया क़ैस को भी इश्क़ का दा'वा पैदा
एक अफ़्साना नया तुम ने सुना मेरे बा'द

हम ने देखा नहीं उस ज़र्फ़ का पीने वाला
शीशा करता है ये साक़ी से गिला मेरे बा'द

मेरी हस्ती से क़यामत के उठे हैं फ़ित्ने
छुप के पर्दा में कोई रह न सका मेरे बा'द

ज़ुल्फ़ खोले हुए रोते हैं वो पाईन-ए-मज़ार
जज़्ब-ए-उल्फ़त ने बड़ा काम किया मेरे बा'द

ख़ाक-ए-तुर्बत से मिरी लोग शिफ़ा पाते हैं
मरज़-ए-इश्क़ की निकली है दवा मेरे बा'द

अब वो आराम कहाँ ग़ैर के वीराने में
शब-ए-फ़ुर्क़त है गिरफ़्तार-ए-बला मेरे बा'द

बर्क़ ने रक्खा है देरीना तअल्लुक़ क़ाएम
आशियाना में मिरे फूल पड़ा मेरे बा'द

टुकड़े होता है जिगर सुन के मोहब्बत का बयाँ
कोई सुनता नहीं बुलबुल की सदा मेरे बा'द

शैख़-ए-मक्का ने पढ़ाई है जनाज़े की नमाज़
लोग समझे मुझे क्या जानिए क्या मेरे बा'द

क्यूँ बढ़े उन का क़दम गोर-ए-ग़रीबाँ की तरफ़
हाथ आया है उन्हें उज़्र-ए-हिना मेरे बा'द

नौ-गिरफ़्तार-ए-बला एक मिरा दम निकला
दाम-ए-सय्याद में कोई न फँसा मेरे बा'द

मुझ से बदनाम हुए शीशा-ओ-जाम-ओ-सहबा
क्या कहेगी मुझे मख़्लूक़-ए-ख़ुदा मेरे बा'द

फ़ातिहा कौन पढ़े क़ब्र को ठुकराते हैं
उन को सूझी है क़यामत की अदा मेरे बा'द

मलक-उल-मौत से उलझेंगे वो ये डर है मुझे
देखिए किस पे चले तेग़-ए-अदा मेरे बा'द

बे-हिजाबाना उठा दीजिए चेहरे से नक़ाब
और अब कौन है मुश्ताक़-लक़ा मेरे बा'द

मेरे फूलों से भी दामन को बचाया उस ने
लोग समझे हैं तग़ाफ़ुल को हया मेरे बा'द

बुल-हवस इश्क़ के पर्दे में नुमूदार हुए
अब कहाँ शेवा-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा मेरे बा'द

ज़ब्ह के वक़्त भी क़ातिल को दुआएँ दी हैं
क़तरे क़तरे से टपकती है वफ़ा मेरे बा'द

ज़ुल्फ़ खोले हुए आए हो सफ़-ए-मातम में
ख़ूब सूझा अमल-ए-रद्द-ए-बला मेरे बा'द

जान देते हैं शहादत की तमन्ना में ग़रीब
लब-ए-क़ातिल पे ये जारी है सदा मेरे बा'द

काकुल-ए-साक़ी-ए-कौसर का तसव्वुर बन कर
क़ब्र पर आई है रहमत की घटा मेरे बा'द

गुफ़्तुगू रात ये थी हश्र बपा कब होगा
बढ़ के 'रासिख़' ने सर-ए-बज़्म कहा मेरे बा'द