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न मोहतसिब की न हूर-ओ-जिनाँ की बात करो | शाही शायरी
na mohtasib ki na hur-o-jinan ki baat karo

ग़ज़ल

न मोहतसिब की न हूर-ओ-जिनाँ की बात करो

अब्दुल मजीद सालिक

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न मोहतसिब की न हूर-ओ-जिनाँ की बात करो
मय-ए-कुहन की निगार-ए-जवाँ की बात करो

किसी की ताबिश-ए-रुख़्सार का कहो क़िस्सा
किसी के गेसू-ए-अम्बर-फ़िशाँ की बात करो

ज़िया है शाहिद-ओ-शम्अ'-ओ-शराब से उस की
फ़रोग़-ए-महफ़िल-ए-रुहानियाँ की बात करो

जो मुद्दआ' हो किसी क़िबला-ए-मुराद का ज़िक्र
तो आस्ताना-ए-पीर-ए-मुग़ाँ की बात करो

नहीं हुआ जो तुलूअ' आफ़्ताब तो फ़िलहाल
क़मर की बात करो कहकशाँ की बात करो

रहेगा मशग़ला-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ कब तक
गुज़र रहा है जो उस कारवाँ की बात करो

ये क़ैद-ओ-सैद के अंदेशा-हा-ए-बे-जा क्या
चमन की फ़िक्र करो आशियाँ की बात करो

यही जहान है हंगामा-ज़ार-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
इसी के सूद इसी के ज़ियाँ की बात करो

अब इस चमन में न सय्याद है न गुलचीं है
करो तो अब सितम-ए-बाग़बाँ की बात करो

ख़ुदा के ज़िक्र का मौक़ा नहीं यहाँ 'सालिक'
दयार-ए-हिन्द में हुस्न-ए-बुताँ की बात करो