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न मिरे पास इज़्ज़त-ए-रमज़ाँ | शाही शायरी
na mere pas izzat-e-ramazan

ग़ज़ल

न मिरे पास इज़्ज़त-ए-रमज़ाँ

ताबाँ अब्दुल हई

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न मिरे पास इज़्ज़त-ए-रमज़ाँ
न कभू की इबादत-ए-रमज़ाँ

दुश्मन-ए-ऐश का मैं दुश्मन हूँ
गो कि थे फ़र्ज़ हुर्मत-ए-रमज़ाँ

मुझ को मस्जिद से काम नहीं इल्ला
सुनने जाता हूँ रुख़्सत-ए-रमज़ाँ

शैख़ रोता है अपनी रोज़ी को
कि न अज़-बहर-ए-फ़ुर्क़त-ए-रमज़ाँ

कुछ न हासिल हुआ किसी के तईं
ग़ैर फ़ाक़ा बदौलत-ए-रमज़ाँ

ज़ाहिद-ए-ख़ुश्क के तईं देखे
याद आती है सूरत-ए-रमज़ाँ

मेरे हम-मशरबों में आ 'ताबाँ'
रीझते होंगे हज़रत-ए-रमज़ाँ