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न मंदिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता | शाही शायरी
na mandir mein sanam hote na masjid mein KHuda hota

ग़ज़ल

न मंदिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता

नौशाद अली

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न मंदिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता
हमीं से ये तमाशा है न हम होते तो क्या होता

न ऐसी मंज़िलें होतीं न ऐसा रास्ता होता
सँभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेर-ए-पा होता

घटा छाती बहार आती तुम्हारा तज़्किरा होता
फिर उस के बाद गुल खिलते के ज़ख़्म-ए-दिल हरा होता

ज़माने को तो बस मश्क़-ए-सितम से लुत्फ़ लेना है
निशाने पर न हम होते तो कोई दूसरा होता

तिरे शान-ए-करम की लाज रख ली ग़म के मारों ने
न होता ग़म तो इस दुनिया में हर बंदा ख़ुदा होता

मुसीबत बन गए हैं अब तो ये साँसों के दो तिनके
जला था जब तो पूरा आशियाना जल गया होता

हमें तो डूबना ही था ये हसरत रह गई दिल में
किनारे आप होते और सफ़ीना डूबता होता

अरे-ओ जीते-जी दर्द-ए-जुदाई देने वाले सुन
तुझे हम सब्र कर लेते अगर मर के जुदा होता

बुला कर तुम ने महफ़िल में हमें ग़ैरों से उठवाया
हमीं ख़ुद उठ गए होते इशारा कर दिया होता

तिरे अहबाब तुझ से मिल के फिर मायूस लौट आए
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी कुछ तो कहा होता