न कोई ख़्वाब हमारे हैं न ताबीरें हैं
हम तो पानी पे बनाई हुई तस्वीरें हैं
क्या ख़बर कब किसी इंसान पे छत आन गिरे
क़र्या-ए-संग है और काँच की तामीरें हैं
लुट गए मुफ़्त में दोनों, तिरी दौलत मिरा दिल
ऐ सख़ी! तेरी मिरी एक सी तक़दीरें हैं
हम जो ना-ख़्वांदा नहीं हैं तो चलो आओ पढ़ें
वो जो दीवार पे लिक्खी हुई तहरीरें हैं
हो न हो ये कोई सच बोलने वाला है 'क़तील'
जिस के हाथों में क़लम पाँव में ज़ंजीरें हैं
ग़ज़ल
न कोई ख़्वाब हमारे हैं न ताबीरें हैं
क़तील शिफ़ाई