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न कोई हिज्र न कोई विसाल है शायद | शाही शायरी
na koi hijr na koi visal hai shayad

ग़ज़ल

न कोई हिज्र न कोई विसाल है शायद

जौन एलिया

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न कोई हिज्र न कोई विसाल है शायद
बस एक हालत-ए-बे-माह-ओ-साल है शायद

हुआ है दैर-ओ-हरम में जो मोतकिफ़ वो यक़ीन
तकान-ए-कश्मकश-ए-एहतिमाल है शायद

ख़याल-ओ-वहम से बरतर है उस की ज़ात सो वो
निहायत-ए-हवस-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल है शायद

मैं सत्ह-ए-हर्फ़ पे तुझ को उतार लाया हूँ
तिरा ज़वाल ही मेरा कमाल है शायद

मैं एक लम्हा-ए-मौजूद से इधर न उधर
सो जो भी मेरे लिए है मुहाल है शायद

वो इंहिमाक हर इक काम में कि ख़त्म न हो
तो कोई बात हुई है मलाल है शायद

गुमाँ हुआ है ये अम्बोह से जवाबों के
सवाल ख़ुद ही जवाब-ए-सवाल है शायद