न कोई दर न दरीचा मगर मकान तो है
ज़मीं है ज़ेर-ए-क़दम सर पे आसमान तो है
हज़ार जल्वों का तो राज़-दाँ है आईना
हुई न आँख मयस्सर तुझे ज़बान तो है
बदलता रहता है रंग आसमान लम्हों में
सितम-शिआ'र अभी मुझ से ख़ुश-गुमान तो है
ग़म-ए-हयात से घबरा के तजरबे के लिए
चले ही जाएँगे अब दूसरा जहाँ तो है
तमाम सहरा-ओ-दश्त-ओ-जबल कहें लब्बैक
अज़ल से फैली फ़ज़ाओं में इक अज़ान तो है
ज़हे-नसीब जगह थोड़ी चश्म-ए-तर में मिली
सुलगती धूप में इक सर्द साएबान तो है
मोहर-ब-लब हूँ प शर्त-ए-कलाम क़ाएम है
मिरी शकेब-ए-अयाज़ी का इम्तिहान तो है
सऊद फ़िक्र-ए-तग़ज़्ज़ुल को बोझ है तो रहे
हर एक हर्फ़ हक़ीक़त का तर्जुमान तो है
असर के शे'र में हुस्न-ओ-कशिश की है तौजीह
नई जिहत न सही ज़ेब-ए-दास्तान तो है

ग़ज़ल
न कोई दर न दरीचा मगर मकान तो है
मर्ग़ूब असर फ़ातमी