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न कोई दर न दरीचा मगर मकान तो है | शाही शायरी
na koi dar na daricha magar makan to hai

ग़ज़ल

न कोई दर न दरीचा मगर मकान तो है

मर्ग़ूब असर फ़ातमी

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न कोई दर न दरीचा मगर मकान तो है
ज़मीं है ज़ेर-ए-क़दम सर पे आसमान तो है

हज़ार जल्वों का तो राज़-दाँ है आईना
हुई न आँख मयस्सर तुझे ज़बान तो है

बदलता रहता है रंग आसमान लम्हों में
सितम-शिआ'र अभी मुझ से ख़ुश-गुमान तो है

ग़म-ए-हयात से घबरा के तजरबे के लिए
चले ही जाएँगे अब दूसरा जहाँ तो है

तमाम सहरा-ओ-दश्त-ओ-जबल कहें लब्बैक
अज़ल से फैली फ़ज़ाओं में इक अज़ान तो है

ज़हे-नसीब जगह थोड़ी चश्म-ए-तर में मिली
सुलगती धूप में इक सर्द साएबान तो है

मोहर-ब-लब हूँ प शर्त-ए-कलाम क़ाएम है
मिरी शकेब-ए-अयाज़ी का इम्तिहान तो है

सऊद फ़िक्र-ए-तग़ज़्ज़ुल को बोझ है तो रहे
हर एक हर्फ़ हक़ीक़त का तर्जुमान तो है

असर के शे'र में हुस्न-ओ-कशिश की है तौजीह
नई जिहत न सही ज़ेब-ए-दास्तान तो है