न ख़त लिखे न दिए उन को तार अब के बरस
गुज़र गई यूँ ही सारी बहार अब के बरस
न सोए रात को जा कर खुली हुई छत पर
किए न हम ने सितारे शुमार अब के बरस
गुज़िश्ता साल भी दिल बे-क़रार था लेकिन
अजीब तरह की उलझन है यार अब के बरस
किसी भी लब पे तबस्सुम के गुल नहीं महके
किसी भी आँख से छलका न प्यार अब के बरस
ये रंग क्यूँ नहीं जचते मिरी निगाहों में
ये फूल क्यूँ मुझे लगते हैं ख़ार अब के बरस
न जाने किस तरह लोगों के दिन गुज़रते हैं
किसी के रुख़ पे नहीं है निखार अब के बरस
करोगे कैसे 'ख़लिश' अपनी बे-कली का इलाज
शराब में भी नहीं है ख़ुमार अब के बरस

ग़ज़ल
न ख़त लिखे न दिए उन को तार अब के बरस
ख़लिश बड़ौदवी