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न कर्ब-ए-हिज्र न कैफ़्फ़ियत-ए-विसाल में हूँ | शाही शायरी
na karb-e-hijr na kaiffiyat-e-visal mein hun

ग़ज़ल

न कर्ब-ए-हिज्र न कैफ़्फ़ियत-ए-विसाल में हूँ

आबिद हशरी

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न कर्ब-ए-हिज्र न कैफ़्फ़ियत-ए-विसाल में हूँ
मुझे न छेड़िए अब मैं अजीब हाल में हूँ

तमाम रंग-ए-इबारत में सोज़-ए-जाँ से मिरे
मैं हुस्न-ए-ज़ात हूँ और मंज़िल-ए-जमाल में हूँ

मिरा वजूद ज़रूरत है हर ज़माने की
मैं रौशनी की तरह ज़ेहन-ए-माह-ओ-साल में हूँ

अभी वसीला-ए-इज़हार ढूँढती है निगाह
अभी सवाल कहाँ हसरत-ए-सवाल में हूँ

मुझे न देख मिरी ज़ात से अलग कर के
मैं जो भी कुछ हूँ फ़क़त अपने ख़द्द-ओ-ख़ाल में हूँ

मैं जी रहा हूँ ये मेरा कमाल है 'हशरी'
मैं अपने अहद की तहज़ीब के ज़वाल में हूँ