न जाने आग कैसी आइनों में सो रही थी
धुआँ भी उठ रहा था रौशनी भी हो रही थी
लहू मेरी नसों में भी कभी का जम चुका था
बदन पर बर्फ़ को ओढ़े नदी भी सो रही थी
चमकते बर्तनों में ख़ून गारा हो रहा था
मिरी आँखों में बैठी कोई ख़्वाहिश रो रही थी
हमारी दोस्ती में भी दराड़ें पड़ रही थीं
उजाले में नुमायाँ तीरगी भी हो रही थी
दबाव पानियों का एक जानिब बढ़ रहा था
न जाने साहिलों पर कौन कपड़े धो रही थी
किसी के लम्स का एहसास पैहम हो रहा था
कि जैसे फूल पर मासूम तितली सो रही थी
ग़ज़ल
न जाने आग कैसी आइनों में सो रही थी
तौक़ीर अब्बास