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न हुआ नसीब क़रार-ए-जाँ हवस-ए-क़रार भी अब नहीं | शाही शायरी
na hua nasib qarar-e-jaan hawas-e-qarar bhi ab nahin

ग़ज़ल

न हुआ नसीब क़रार-ए-जाँ हवस-ए-क़रार भी अब नहीं

जौन एलिया

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न हुआ नसीब क़रार-ए-जाँ हवस-ए-क़रार भी अब नहीं
तिरा इंतिज़ार बहुत किया तिरा इंतिज़ार भी अब नहीं

तुझे क्या ख़बर मह-ओ-साल ने हमें कैसे ज़ख़्म दिए यहाँ
तिरी यादगार थी इक ख़लिश तिरी यादगार भी अब नहीं

न गिले रहे न गुमाँ रहे न गुज़ारिशें हैं न गुफ़्तुगू
वो निशात-ए-वादा-ए-वस्ल क्या हमें ए'तिबार भी अब नहीं

रहे नाम-ए-रिश्ता-ए-रफ़्तगाँ न शिकायतें हैं न शोख़ियाँ
कोई उज़्र-ख़्वाह तो अब कहाँ कोई उज़्र-दार भी अब नहीं

किसे नज़्र दें दिल-ओ-जाँ बहम कि नहीं वो काकुल-ए-खम-ब-ख़म
किसे हर-नफ़स का हिसाब दें कि शमीम-ए-यार भी अब नहीं

वो हुजूम-ए-दिल-ज़दगाँ कि था तुझे मुज़्दा हो कि बिखर गया
तिरे आस्ताने की ख़ैर हो सर-ए-रह-ए-गुबार भी अब नहीं

वो जो अपनी जाँ से गुज़र गए उन्हें क्या ख़बर है कि शहर में
किसी जाँ-निसार का ज़िक्र क्या कोई सोगवार भी अब नहीं

नहीं अब तो अहल-ए-जुनूँ में भी वो जो शौक़-ए-शहर में आम था
वो जो रंग था कभी कू-ब-कू सर-ए-कू-ए-यार भी अब नहीं