न गुमान मौत का है न ख़याल ज़िंदगी का
सो ये हाल इन दिनों है मिरे दिल की बे-कसी का
मैं शिकस्ता बाम ओ दर में जिसे जा के ढूँडता था
कोई याद थी किसी की कोई नाम था किसी का
मैं हवाओं से हिरासाँ वो घुटन से दिल-गिरफ़्ता
मैं चराग़ तीरगी का वो गुलाब रौशनी का
अभी रेल के सफ़र में हैं बहुत निहाल दोनों
कहीं रोग बन न जाए यही साथ दो घड़ी का
कोई शहर आ रहा है तो ये ख़ौफ़ आ रहा है
कोई जाने कब उतर ले कि भरोसा क्या किसी का
कोई मुख़्तलिफ़ नहीं है ये धुआँ ये राएगानी
कि जो हाल शहर का है वही अपनी शाइरी का
ग़ज़ल
न गुमान मौत का है न ख़याल ज़िंदगी का
ऐतबार साजिद