न दोस्ती से रहे और न दुश्मनी से रहे
हमें तमाम गिले अपनी आगही से रहे
वो पास आए तो मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू न मिले
वो लौट जाए तो हर गुफ़्तुगू उसी से रहे
हम अपनी राह चले लोग अपनी राह चले
यही सबब है कि हम सरगिराँ सभी से रहे
वो गर्दिशें हैं कि छुट जाएँ ख़ुद ही बात से हात
ये ज़िंदगी हो तो क्या रब्त-ए-जाँ किसी से रहे
कभी मिला वो सर-ए-रहगुज़र तो मिलते ही
नज़र चुराने लगा हम भी अजनबी से रहे
गुदाज़-क़ल्ब कहे कोई या कि हरजाई
ख़ुलूस ओ दर्द के रिश्ते यहाँ सभी से रहे

ग़ज़ल
न दोस्ती से रहे और न दुश्मनी से रहे
सहर अंसारी